बुलंदशहर में 1857 की क्रांति, क़त्ल ए आम से काला आम तक…………………

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1857 में बुलंदशहर के काले आम के पास अंग्रेज़ो और हिंदुस्तान की आज़ादी के मतवाले के बीच एक ज़बरदस्त जंग हुई थी, इस जंग में अंग्रेज़ी फ़ौज की तादाद जहाँ एक तरफ़ बहुत थी तो उनके पास जदीद असलहे भी थे। लेकिन फिर भी जिस हिम्मत और बहादुरी से मुजाहिदों ने जंग लड़ी वैसी मिसाल बहुत ही कम मिलती है, बाग़ियों के पास पुरानी बंदूक़ भाले तलवार के इलवा कुछ था तो वो बहादुरी और हिम्मत था, क्यूंके ख़ाने पीने का समान भी मुहैया ना था फिर भी दीवाने जंग लड़ें जा रहे थे।

इस जंग को लीड कर रहे थे नवाब वलीदाद ख़ान, नवाब वलीदाद ख़ान को आसपास के इलाक़े से ज़बरदस्त मदद मिल रही थी, सैंकड़ों नौजवान इस जंग में हिस्सा लेने आ रहे थे, ऐसे में ही एक थे अब्दुल लतीफ़ ख़ान वो जंग में ख़ुद तो हिस्सा ना ले सके लेकिन रुपैय पैसे और बाग़ियों को पनाह देने का काम अपने ज़िम्मे ले लिया, अब्दुल लतीफ़ ख़ान अंग्रेज़ो को माल गुज़ारी देने से पहले ही इंकार कर चुके थे, लेकिन काले आम की लड़ाई के बाद वो अंग्रेज़ के खुले दुश्मन थे, इस लड़ाई में शिकस्त के बाद अब्दुल लतीफ़ की तमाम जायदाद ज़ब्त कर ली गयी और उन्हें काले पानी की सज़ा दी गयी।

नवाब वलीदाद ख़ान का ख़ानदान शाह आलम के ज़माने से हाकिम था, अपने लिए एक क़िला माला गढ़ भी बनवाया था, नवाब वलीदाद ख़ान की एक शहज़ादी का रिश्ता बहादुर शाह ज़फ़र के बेटे से तय हुआ था, इस वजह से दिल्ली हुकूमत से इनके रिश्ते बहुत अच्छे थे, जब सिपाहीयों ने बग़ावत की तब बहादुर शाह ज़फ़र नाम के बादशाह से काम के बादशाह बने तो नवाब वली दाद दिल्ली गए, और वहाँ से सिपाहियों को लेकर माला गढ़ आ गए और अपनी आज़ाद रियासत का ऐलान कर दिया।

मोहम्मद इस्माइल खान ने बुलंद शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया, नवाब वलीदाद ख़ान के परचम के नीचे ग़ुलाम हैदर ख़ान, मेहंदी ख़ान, वज़ीर अली, नवाब मुस्तफ़ा ख़ान, इस्माइल खान सब आ गए और बुलन्दशहर पर नवाब वली दाद ख़ान की हुकूमत आ गयी।

नवाब वलीदाद ख़ान से एक तरफ़ जहाँ बुलन्दशहर के जाट जलते थे तो दूसरी तरफ़ नवाब के मामू को नवाबियत के ख़्वाब आ रहे थे, जाट खुले आम अंग्रेज़ो के साथ चले गए तो मामू अंग्रेज़ो में चुपके से मिल गए, तोपख़ाने की सारी ज़िम्मेदारी मामू के पास थी उन्होंने अंग्रेज़ो का क़ब्ज़ा बारूद और तोप ख़ाने पर करा दिया।

नवाब वली दाद ख़ान के दो बहादुर साथी इस्माइल ख़ान और ऐमन गुज़र ज़ख़्मी हो गए, जिससे मुजाहिदों को ज़बरदस्त झटका लगा, लेकिन नवाब वलीदाद जंग से पीछे नही हटे, कई महीने तक जंग होती रही, दिल्ली पर दोबारा अंग्रेज़ो का क़ब्ज़ा हो चुका था लेकिन बुलन्दशहर में जंग जारी थी, मुखबिरों और ग़द्दारों ने लगातार नवाब साहब की जानकारी कम्पनी की फ़ौज तक पहुँचाने का काम किया।

फिर एक रात जब नवाब साहब की फ़ौज आराम कर रही थी तब हमला किया गया … जिससे शदीद नुक़सान हुआ और नवाब साहब को वापस अपने क़िले में आना पड़ा, फिर एक दिन क़िले की बारी आयी अंग्रेज़ो ने उसे तबाह कर दिया … फिर काले आम पर हर रोज़ लाशें मिलने लगी … अंग्रेज़ जिसे चाहते उसे फाँसी दे देते। वो एक आम का पेड़ था जिस पर लोगों को फांसी पर लटका कर क़त्ल ए आम किया जाता था, बाद में ये जगह ही क़त्ल ए आम की जगह काला आम के नाम से जाना जाने लगा।

नवाब वलीदाद ख़ान फिर रोहेलखंड की तरफ़ निकल गए … वहाँ अंग्रेज़ो से लड़ते रहे जब वहाँ के नवाब की भी शिकस्त हो गयी तो नवाब वली दाद ख़ान ख़ुद गुमनामी की दुनिया में चले गए, फिर क्या हुआ कोई ना जान सका।

Ar Ibrahimi साहेब की क़लम से

 

 

 

 

 

 

मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी :- जंग ए आज़ादी में ख़ुद भी हिस्सा लिया और साथ ही कई क्रांतिकारीयों की हिफ़ाज़त भी की।

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हज़रत मौलाना शाह मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी के उन अज़ीम सुरमाओं में से थे जिन्होने अपने ख़ानक़ाह को जंग ए आज़ादी का ख़ुफ़िया मरकज़ यानी हेडक्वाटर बनाया।

1912 में बिहार के मुंगेर ज़िला में पैदा हुए मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब के वालिद का नाम हज़रत मौलाना मुहम्मद अली मुंगेरी(र.अ.) था, जो बहुत ही बड़े बुज़ुर्गान ए दीन थे और उन्होने ही 1901 में ख़ानक़ाह रहमानीया मुंगेर की बुनियाद डाली थी।

शुरुआती तालीम घर पर हासिल करने के बाद मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब आगे की तालीम के लिए दारुल उलुम देवबंद गए ये वो दौर था जब शेख़ उल हिन्द महमुद हसन (र.अ) के शागिर्द शेख़ उल इस्लाम हुसैन अहमद मदनी(र.अ) जंग ए आज़ादी को लीड कर रहे थे।

दारुल उलुम देवबंद में तालीम के दौरान ही मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब तहरीक ए आज़ादी में हिस्सा लेने लगे और जल्द ही वो वहां मौजुद तमाम स्टुडेंट की क़यादत करने लगे।

बात 1933 की है, सविनय अवज्ञा आंदोलन (Civil Disobedience Movement 1930-34) अपने उरुज पर था, जब मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब तहरीक ए आज़ादी का कांरवां ले कर दिल्ली के चांदनी चौक एक एहतेजाजी जलसा करने पहुंचे तो पुलिस ने लाठियां बरसाई, मौलाना सहीत कई लोग ज़ख़्मी हुए, फिर गिरफ़्तार भी कर लिये गए।

इस दौर में उल्मा पुरे मुल्क में लोगों के अंदर सियासी और इंक़लाबी बेदारी लाने के लिए अलग अलग शहर में काम कर रहे थे और जेल से बाहर आने के बाद मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब को सहारनपुर की ज़िम्मेदारी दी गई।

अब मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब ने सहारनपुर का रुख़ किया और वहां हुए कई जलसों में शरीक हुए और महज़ 22 साल की उम्र में उनके द्वारा की गई इंक़लाबी तक़रीरों मे जहां अवाम के अंदर एक नया जोश भर दिया, वहीं मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब एक बार फिर अंग्रेज़ों के निशाने पर आ गए, उन्हे गिरफ़्तार कर लिया गया और सलाख़ों के पीछे डाल दिया गया।

जेल में मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब चार माह तक क़ैद रहे जहां आपसे मिलने शेख़ उल इस्लाम हुसैन अहमद मदनी(र.अ) ख़ुद आए।

जेल से बाहर आने के बाद 1934 में मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब ने दारुल उलुम देवबंद से सनद हासिल की और खुल कर मिल्ली और मुल्क की सियासत में हिस्सा लेना शुरु किया।

जब वापस बिहार लौटे तो अमीर ए शरियत मुफ़्ककिर ए इस्लाम हज़रत मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब की ज़ेर ए निगरानी में इमारत शरिया पटना का काम देखने लगे।

मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब की ज़ेर ए निगरानी में इमारत शरिया तहरीक ए आज़ादी में हिस्सा ले रहा था और “ईमारत ए शरीया” से 15 रोज़ा रिसाला निकलता था ‘अल-इमारत’ जिसमे शाए होने वाली इंक़लाबी तहरीरें सीधे तौर पर अंग्रेज़ो के उपर हमलावर होती थी, अंग्रेज़ो ने इस बाग़ीयाना समझा और मुक़दमा चलाया, फिर जुर्माना भी वसुल किया पर इंक़लाबी मज़ामीन में कोई कमी नही आई जिससे थक हार कर अंग्रेज़ो ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के वक़्त बैन कर दिया था तब ‘नक़ीब’ नाम से एक रिसाला निकाला गया जिसने और मज़बुती से अपनी बात रखी और इस रिसाले में मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब ने कई इंक़लाबी मज़ामीन लिखे।

12 सितम्बर 1936 को इमारत ए शरिया ने मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब की ज़ेर ए निगरानी में मुस्लिम इंडिपेंडेट पार्टी की स्थापना की और 1937 के इलेकशन में हिस्सा भी लिया, मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब साहेब मुस्लिम इंडिपेंडेट पार्टी के टिकट पर मुंगेर से भारी मतों से जीत हासिल की।

और इसी साल 1937 मे बैरिसटर युनुस साहब ने बिहार मे मुस्लिम इंडिपेंडेट पार्टी की सरकार का गठन किया, सरकार की राह मे सबसे बड़े रोड़ा बने जय प्रकाश नारायण … कुछ ही महीने बाद यूनुस साहब ने इस्तीफ़ा दे दिया उसके बाद कांग्रेस ने बिहार मे सरकार का गठन किया।

1937 में अपने जानशीनों की मदद से ‘अल हेलाल’ नामका सप्ताहिक पर्चा निकालना शुरु किया, जिसमे शाए होने वाली इंक़लाबी तहरीरें सीधे तौर पर अंग्रेज़ो के उपर हमलावर होती थी।

मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब ने खुल कर मुस्लिम लीग और 1940 के लाहौर अधिवेशन की मुख़ालफ़त की। अमीर ए शरीयत मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब के इंतक़ाल के बाद मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब इमारत शरिया के मोहतमिम यानी अमीर ए शरीयत बने।

अपने वालिद हज़रत मौलाना मुहम्मद अली मुंगेरी(र.अ.) के इंतक़ाल के बाद मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब ख़ानक़ाह रहमानीया मुंगेर के सज्जादानशीं मुक़र्रर हुए और 1942 में उन्होने जामिया रहमानी मुंगेर की बुनियाद डाली। यहां से भी तहरीक ए आज़ादी में हिस्सा लेते रहे, जिसके लिए उन्होने इमारत ए शरिया और जमियत उल्मा के प्लैटफ़ॉर्म का भरपुर उपयोग किया।

जैसे ही गांधी जी की क़ियादत में 8 अगस्त 1942 को युसुफ़ जाफ़र मेहर अली नें मुम्बई में ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’ का नारा दिया पुरे भारत में इंक़लाब की चिंगारी फुट पड़ी और इसका असर बिहार में दिखने लगा, अंग्रेज़ो ने ख़ानक़ाह रहमानीया मुंगेर पर 12 घंटे के अंदर दो बार छापेमारी की।

भारत छोड़ो आंदोलन के समय बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ख़ानक़ाह रहमानीया मुंगेर में 22 दिन रहे थे। इस दौरान ख़ानक़ाह रहमानीया मुंगेर इंक़लाबीयों का महफ़ुज़ आरामगाह बन चुका था, बड़ी तादाद में इंक़लाबी अंग्रेज़ो से बचते हुए यहीं से ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को लीड कर रहे थे।

वैसे 1934 के जलज़ले के दौरना भी ख़ानक़ाह रहमानीया मुंगेर ने हिन्दुस्तान के कई बड़े रहनुमाओं का स्वागत किया था, जलज़ले से मुतास्सिर लोगों की मदद और हाल चाल लेने जब गांधी जी, पंडित नेहरु और ग़फ़्फ़ार ख़ान मुंगेर आए थे तो उन्होने ख़ानक़ाह को ही अपना हेडक्वाटर बनाया था। ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ख़ुदाई ख़िदमतगार तहरीक के रज़ाकारों के साथ यहां 15 दिन ठहरे थे ताके जलज़ले से मुतास्सिर लोगों की मदद कर सकें। इनसे पहले बी अम्मा और उनके साहेबज़ादे अली बेराद्रान मौलाना शौकत अली और मौलाना मुहम्मद अली जौहर भी यहां तशरीफ़ ला चुके थे।

जब मुल्क आज़ाद हुआ तो भारत के पहले प्राधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु और बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की चाहत थी के मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब राजसभा के सदस्य बनें पर उन्होने यह कह कर इंकार कर दिया के 1940 में ही उन्होने सियासत से तौबा कर लिया था।

1972 में मौलाना मिन्नतउल्लाह रहमानी साहेब की फ़िक्र की वजह कर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का क़याम हो पाया और आपका इंतक़ाल साल 1991 में हुआ, आपने अपने आख़री वक़्त में भी मुल्क और क़ौम की फ़िक्र करना नही छोड़ा।

Md Umar Ashraf

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मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद :- अंग्रेज़ो के इलावा मुस्लिम लीग और हिन्दु महासभा से लड़ने वाला ग़ैर कांग्रेसी शख़्स।

1880 में नालंदा ज़िला के पनहस्सा गांव में पैदा हुए मुफ़्ककिर ए इस्लाम हज़रत मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब का शुमार उन लोगों में होता है जिनका ज़िक्र किये बग़ैर बिहार और हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी की तारीख़ अधुरी है।

मौलाना सज्जाद साहेब की शरुआती तालीम घर पर ही हुई, वालिद मोहतरम मौलवी शेख़ हुसैन बख़्श और बड़े भाई अहमद सज्जाद से फ़ारसी व उर्दू की तालीम हासिल की, इसी बीच वालिद मोहतरम मौलवी शेख़ हुसैन बख़्श का इंताकाल हो गया, अरबी की शुरुआती पढ़ाई मदरसा इसलामिया बिहार शरीफ़ से शुरू की जहाँ उन्होंने अरबी की तालीम मारुफ़ आलिम ए दीन मौलाना वाहिदुल हक़ साहेब के ज़ेर ए निगरानी मुकम्मल की और फिर आला तालीम के लिए कानपुर चले गए, वहाँ मौलाना अहमद हुसैन की निगरानी में रहे फिर वहां देवबंद चले गए, मौलाना अज़मतउल्लाह मलीहाबादी के हवाले से नसीम अहमद क़ासमी अपनी किताब “बिहार के मुस्लिम मुजाहिदीन ए आज़ादी” में लिखते हैं :- ” देवबंद मे मौलाना सज्जाद साहेब ने शेख़उल हिन्द र.अ. से दर्स लिया” कुछ ही वक्त गुज़रा था कि वहाँ मौलाना का झगड़ा हो गया और देवबंद को छोड़ना पड़ा फिर आप कानपुर लौटे और चार साल वहां रहे फिर इलाहाबाद मे मौलाना अब्दुल काफ़ी के मदरसा सुब्हानिया से अपनी डिग्री मुकम्मल की।

फिर मौलाना सज्जाद साहेब ने बिहार शरीफ़ के मदरसा इस्लामिया में पढ़ाने का काम शुरु किया और 1912 में गया शहर चले गये और वहाँ मदरसा अनवार उल उलुम मे पढ़ाने का काम शुरु किया, उसी दौरान उनकी मुलाकात मौलाना ज़ाहिद दरियाबादी से हुई और उनसे उन्होंने अंग्रेज़ी ज़ुबान का इल्म हासिल किया और सियासत के मैदान मे आ गये।

1917 में अंजुमन ए उलमा ए बिहार को काय़म करने में अपनी भरपुर कोशिश की फिर खिलाफ़त आंदोलन, असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया … सविनय अवज्ञा आंदोलन मे हिस्सा लेने की वजह से उनके बड़े बेटे को छः माह की क़ैद हो गई … 1921 में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के साथ मिल कर ‘इमारत शरिया’ की बुनियाद डाली।

1925 मे जमियत उलमा हिंद की मजलिस मुरादाबाद मे हुई वहाँ उन्होंने अपनी तक़रीर मे साफ़ तौर पर कहा सियासत एैन दीन है … उनका मानना था कि मुसलमानों को कांग्रेस का साथ देना चाहिए और हिंदू मुस्लिम दोनो मिलकर इस देश को अंग्रेज़ों से आज़ादी हासिल करना चाहिए।

मौलाना ने मुसलमानों के ग़रीब तबके के लिए चम्पारण ज़िला मे मदारिस खोलने का इंतेजाम भी किया और साथ ही साथ शुद्धि संगठन की जमकर मुख़ालफ़त भी की, चम्पारण ज़िले के वाघा नाम के जगह पर उन्होंने एक स्कूल भी खोला और गरीब पिछड़े तबके के लिए लड़ते रहे।

1936 मे बैरिसटर युनुस साहब के साथ मिलकर मुस्लिम इंडिपेंडेट पार्टी की स्थापना की और 1937 मे बिहार मे सरकार का गठन किया … सरकार की राह मे सबसे बड़े रोड़ा बने जय प्रकाश नारायण … कुछ ही महीने बाद यूनुस साहब ने इस्तीफ़ा दे दिया उसके बाद कांग्रेस ने बिहार मे सरकार का गठन किया।

20 फरवरी 1940 को ऩकीब (इमारत शरिया से निकलने वाला अख़बार ) में मौलाना लिखते हैं “अक़ीदे का पब्लिक प्लेस मे ऐलान और इज़हार से इंसानी तहज़ीब को नुकसान पहुंचती है … तमाम फ़िरक़े और और क़ौम के मज़हबी जलसे और जुलूस पब्लिक मुक़ामात पर बंद कर दिये जाने चाहिए … धार्मिक रिती रिवाज और त्योहार का पालन लोग अपने अपने घर मे करें।

मौलाना सजजाद ने गौ हत्या की भी मुख़ालफ़त की थी और उनका ये मानना था कि गौ हत्या के नाम पर जितने दंगे हो रहे हैं इन सब मे जहाँ मुसलमानों का बड़ा नुकसान हो रहा है उसके साथ ही साथ ये हिंदू मुस्लिम इत्तेहाद को भी कमजोर कर रहा है।

मौलाना सज्जाद साहेब अपने काम की वजह कर लोगों का दिल व दिमाग़ जीत चुके थे, उनके साथ बड़ी तादाद मे पिछड़े वर्ग के मुसलमान खड़े थे।

मौलान सजजाद साहेब ने खुल कर मुस्लिम लीग की मुख़ालफ़त की था, 1940 के लाहौर अधिवेशन की मुख़ालफ़त की और जिन्नाह को कई खत लिखें, उनके एक खत का उनवान था ‘इस्लामी हुक़ुक़ और मुस्लिम लीग ‘ जिसमे उन्होंने मुस्लिम लीग से कुछ सवाल पूछे थे … जिनमे लीग क्यों Complete Independace की माँग नही करती ? मुस्लिम पर्सनल लॉ पर जिन्नाह क्यों ख़ामोश हो जाते हैं ?

मौलाना सज्जाद साहेब लिखते हैं, लीग के पास बिहार और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों के लिए कुछ नही है … इसलिए कोई तुक नही बनता की पाकिस्तान की माँग का समर्थन किया जाए ….

14 अप्रैल 1940 को नकीब मे अपने आर्टिकल जिसका उनवान था ‘ मुस्लिम इंडिया और हिंदू इंडिया के स्कीम पर एक अहम तबसरा’ में लाहौर अधिवेशन की मुख़ालफ़त करते है और मुल्क के बँटवारे की सोच को सिरे से ख़ारिज कर देते हैं।

मौलाना सज्जाद साहेब जहाँ एक तरफ़ मुस्लिम लीग के लिए रोड़ा बन कर खड़े थे तो दूसरी तरफ़ हिंदू महासभा की भी बखिया उधेड़ रहे थे, मौलाना सज्जाद साहेब की पार्टी का ऑफ़िस फ़्रेज़र रोड में था जहाँ से अक्सर वो पैदल फुलवारी शरीफ़ के लिए निकल जाते थे, मौलाना सज्जाद साहेब को अवाम के पैसे उड़ाने से सख़्त नफ़रत थी, मगर अफ़सोस के हिन्दुस्तान का ये अज़ीम सपुत मुफ़्ककिर ए इस्लाम हज़रत मौलाना अबुल मुहासिन मुहम्मद सज्जाद साहेब 1940 में इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गये … जिससे एक तरफ़ लीग को राहत मिली तो दूसरी तरफ़ दंगाइयों को खुली छूट … जो मुल्क में नफ़रत की ज़हर को घोलते गए।

1921 में इमारत शरिया का क़याम हुआ था, मौलाना उसके फ़ाउंडर मेम्बर थे, इमारत से ‘अल इमारात’ नाम का एक अख़बार निकलता था जिसे सविनय अवज्ञा आंदोलन के वक़्त बैन कर दिया गया तब ‘नक़ीब’ नाम से वीक्ली अख़बार निकाला गया जो आज भी जारी है।

Ar Ibrahimi साहेब की धारदार क़लम से

हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी में मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा पटना का हिस्सा ↕

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मदरसा इस्लाहुल मुस्लिमीन सादिक़पुर पटना और ईमारत ए शरीया फुलवारी शरीफ़ पटना से तालुक़ रखने वाले उलमा ने जंग ए आज़ादी में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था, पर इन सब तज़किरा के बीच हम जंग ए आज़ादी में हिस्सा लेने वाले एक अहम एदारे के बारे में भुल जाते हैं, उस इदारे का नाम है मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा पटना.

मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा एक सरकारी मदरसा था, आम तौर पर ये उम्मीद की जाती है के सरकारी ख़र्चे से चलने वाले इदारे में हुकुमत के ख़िलाफ़ बग़ावत नही पनप सकती है, पर यहां एैसा नही है, इस मदरसे के उस्ताद, स्टुडेंट से ले कर फ़ारिग़एैन तक ने जंग ए आज़ादी में हिस्सा लिया.

1 नवम्बर 1912 को जस्टिस नुरउल होदा ने अपने वालिद जनाब शमसुल होदा के नाम पर इस मदरसे को क़ायम किया, फिर 1919 में इस मदरसे को हुकुमत ए बिहार को सौंप दिया, जनवरी 1919 से ही ये मदरसा हुकुमत ए बिहार की ज़ेर ए निगरानी काम करने लगा.

मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा के पहले प्रींसपल हज़रत मौलाना सोहैल उस्मानी भागलपुरी थे जो शेख़ उल हिन्द हज़रत मौलाना महमुद हसन के ख़ास शागिर्दों में से थे, आपने उनसे दर्स लिया था, और साथ ही रेशमी रुमाल तहरीक में भी हिस्सा लिया था, रेशमी रुमाल तहरीक तो नाकाम हो जाती है पर शेख़ उल हिन्द हज़रत मौलाना महमुद हसन की तालीमात मौलाना सोहैल उस्मानी भागलपुरी के सीने में रह जाती है, 1 जुलाई 1920 से 1 जुलाई 1934 तक वो प्रींसपल के ओहदे पर रहे, इस दौरान उन्होने स्टुडेंट को ना सिर्फ़ तालीम और अच्छी तरबियत देने की कोशिश की, बल्के साथ ही उन्हे मुल्क व क़ौम के हालात से भी वाक़ीफ़ कराया ताके वो आगे आने वाले हालात से मुक़ाबला कर सकें.

मदरसा के उस्ताद में से मौलाना ओबैदउल्लाह, मौलाना असग़र हुसैन बिहारी, मौलाना हाजी मोहिउद्दीन, मौलाना अब्दुर रहमान, मौलाना दियानत हुसैन, मौलाना अब्दुल शकुर आह मुज़फ़्फ़पुरी और मौलाना अब्दुस समद का ज़िक्र उन लोगों में होता है जिन्होने खुल कर जंग ए आज़ादी में हिस्सा लिया, मौलाना अब्दुस समद साहेब तो प्रो अब्दुल बारी साहेब के ख़ास लोगों में शुमार किये जाते थे.

मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा से फ़ारिग़ हो कर निकलने वाले मुजाहिद ए आज़ादी मौलाना बेताब सिद्दीक़ी के हवाले से मुफ़्ती नईम अहमद क़ासमी साहेब अपनी किताब “बिहार के मुस्लिम मुजाहिद ए आज़ादी” में लिखते हैं के इस मदरसे में पढ़ाने वाले अधिकतर उस्ताद जंग ए आज़ादी में हिस्सा लेने वाले स्टुडेंट की खुल कर हौसला अफ़ज़ाई करते थे और दीगर स्टुडेंट को भी उनसे सबक़ लेने के लिए प्रेरित करते थे.

मौलाना बेताब सिद्दीक़ी के हवाले से मुफ़्ती नईम अहमद क़ासमी साहेब अपनी किताब “बिहार के मुस्लिम मुजाहिद ए आज़ादी” में आगे लिखते हैं के मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा में तहरीक ए आज़ादी के हमदर्द और ज़ेहनी तौर पर आज़ाद पसंद तालबा की अच्छी ख़ासी तादाद थी, पर इन तालबा (स्टुडेंट) में ताहिर उस्मानी, अब्दुल हक़ कटकी, मंज़ुर मुजाहिद, मुज़फ़्फ़र नवाब, अब्दुल हयात क़ादरी, सलाहउद्दीन, मुख़्तारउद्दीन, साहेबज़ादा मौलाना ज़फ़रउद्दीन बहारी, मौलाना अब्दुल मजीद रहमानी और मौलाना असरारुल हक़ क़ैस वग़ैरा जंग ए आज़ादी में सबसे सरगर्म तरीक़े से हिस्सा ले रहे थे.

5 अगस्त 1942 को मुम्बई में युसुफ़ जाफ़र मेहर अली नें गांधी जी की क़यादम में “अंग्रेज़ो भारत छोड़ो” का नारा दिया जिसके समर्थन में गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया, फिर क्या था देखते ही देखते पुरे हिन्दुस्तान में इंक़लाब की लहर दौड़ पड़ी, इसका असर पटना में भी देखनो को मिला, मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा के स्टुडेंटों ने ही पटना कॉलेज के सामने टेलीफ़ुन का तार काट गिराया फिर क्या था पुरे इलाक़े के स्टुडेंट एकट्ठा होने लगे, आगे की प्लानिंग बनने लगी, अगले दिन मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा के स्टुडेंटों ने ‘वफ़ा बराही’ की क़्यादत में महेंद्रु पोस्ट ऑफ़िस को लहका दिया यानी आगे के हवाले कर दिया.

हकुमत को शक हो गया के मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा के स्टुडेंट भी इस तहरीक में शामिल हैं, इस लिए होस्टल ख़ाली करवा दिया गया, और होस्टल में स्टुडेंट की जगह मलेट्री के रहने का इंतज़ाम किया गया.

मलेट्री को रोकने के लिए स्टुडेंटों ने महेंद्रु भट्टी से निचली सड़क तक गड्डे खोद डाले और इस काम में मौलाना बेताब सिद्दीक़ी आगे आगे थे और वो गिरफ़्तार होते होते बचे.

मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा से फ़ारिग (पढ़ाई मुकम्मल होना) हो कर कई स्टुडेंट भी इस तहरीक ए आज़ादी में शामिल हुए थे, इसमें सबसे अहम नाम है अब्दुल अलीम सिद्दीक़ी आस दरभंगवी का, वो बालभद्रपुर समस्तीपुर के रहने वाले थे पर दरभंगा में बस गए थे, 1933 में मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा से फ़ाज़िल की पढ़ाई मुकम्मल कर जंग ए आज़ादी में कुद पड़े, नेताजी बोस से अच्छे तालुक़ात थे, मौलाना आज़ाद के प्राईवेट सिक्रेट्री रहे, जमशेदपुर में प्रो अब्दुल बारी साहेब के साथ काम किया और उन्ही के साथ अलीपुर जोल में तीन माह रहे.

यहां से पढ़ कर निकलने वालों वालो में एक मौलाना सैयद हबीबउल्लाह गयावी भी थे, वो नेज़ामपुर गया के रहने वाले थे, वो भी मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा से फ़ाज़िल की पढ़ाई मुकम्मल कर जंग ए आज़ादी में कुद पड़े, कांग्रेस और जमियत उल्मा से जुड़े और कई बार जेल भी गए, “जेल की रातें” इनकी शायरी मजमुआ का नाम है.

मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा पटना से फ़ारिग हो कर कई स्टुडेंट ने जंग ए आज़ादी में हिस्सा लिया, और इस तरह कहा जा सकता है मदरसा इस्लामीया शमसुल होदा पटना के कई उस्ताद और स्टुडेंट तहरीक ए आज़ादी में अहम किरदार अदा किया, इनकी क़ुर्बानी, ख़िदमत और ख़ुलुस की वजह कर हम आज़ाद हैं और हमारा मुल्क आज़ाद है, पर आज कितने लोगों को इनकी क़ुर्बानी याद है ?

Md Umar Ashraf

 

 

 

 

शाह मुहम्मद ज़ुबैर जिसने ‘सर’ का ख़िताब ठुकरा हिनदुस्तान की आज़ादी के लिए अपनी जान दी…

 

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सन 1884 में अरवल बिहार के एक ज़मीनदार ख़ानदान मे पैदा हुए शाह मोहम्मद ज़ुबैर किसी परिचय का मोहताज नही पर आज बड़े अफ़सोस के साथ ये कहा जा सकता है कि इन्हे आज को जानता नही… एक ज़माना था जब इनकी एक आवाज़ पर हज़ारों की तादाद में अवाम जमा हो जाया करती थी।

शाह मोहम्मद ज़ुबैर के वालिद का नाम सैयद अशफ़ाक़ हुसैन था, जो अंग्रेज़ के मुलाज़िम थे, काफ़ी उंचे ओहदे पर थे, जहानाबाद में पोस्टेड थे।

शुरुआती तालामी घर पर हासिल करने के बाद शाह मोहम्मद ज़ुबैर को टी.के.घोष स्कुल पटना भेजा गया, जहां से उन्होने 1904 में उन्होने पढ़ाई मुकम्मल की, चुंके नेयोरा की ईमाम ख़ानदान इसी स्कुल का फ़ारिग़ था और आगे बैरिस्ट्री की पढ़ाई करने इंगलैंड गया था, इस लिए शाह मोहम्मद ज़ुबैर के वालिद ने भी उन्हे 1908 में इंगलैंड भेज दिया, वहां उनकी दोस्ती उन हिन्दुस्तानीयों से हुई जो अपने मुल्क को आज़ाद करना चाहते थे, बचपन से ही 1857 के बाग़ी, इंक़लाबी और क्रांतिकारीयों के कारनामों की कहानियां सुनते आ रहे शाह ज़ुबैर के अंदर एक नया जोश पैदा हुआ, इंगलैंड में रहते समय बार बार ये ख़्याल उनके दिल में आता के इतना सा छोटा मुल्क इतना ख़ुशहाल क्युं ? मेरा मुल्क इतना बड़ा हो कर भी इतने से छोटे मुल्क का ग़ुलाम क्युं ? इतना ग़रीब और कंगाल क्युं ?

इन्ही सब सवाल को दिल में लिए उन्होने बैरिस्ट्री की पढ़ाई मुकम्मल कर 1911 में पटना तशरीफ़ लाए, उसी समय टी.के.घोष स्कुल पटना और इंगलैंड से बैरिस्ट्री की पढ़ाई मुकम्मल कर लौटे लोगों ने बंगाल से बिहार को अलग करने की तहरीक छेड़ रखी थी, जिसमें कुछ नाम है, अली ईमाम, सच्चिदानन्द सिन्हा, मौलाना मज़हरुल हक़, हसन ईमाम वग़ैरा का, शाह मोहम्मद ज़ुबैर ने भी इस तहरीक को अपना समर्थन दिया।

इसके बाद वो पटना में ही वकालत की प्रैकटिस करने लगे, वो अरवल में ही रहते थे और नाव के सहारे नहर के रास्ते अरवल से खगौल आते और फिर टमटम से पटना, ये उनका रोज़ का मामुल था।

1912 में बाकीपुर पटना में हुए कांग्रेस के सालाना इजलास में चीफ़ आर्गानाईज़रों में से थे, इस इजलास में कांग्रेस के पिछले किसी भी इजलास के मुक़ाबले बड़ी तादाद में मुसलमान शरीक हुए थे और इसका सेहरा सच्चिदानन्द सिन्हा, मौलाना मज़हरुल हक़, हसन ईमाम वग़ैरा और शाह मोहम्मद ज़ुबैर के सर बंधता है।

फिर 1914 में मुंगेर की रहने वाली बी.बी सदीक़ा से शादी हो गई जिसके बाद शाह मोहम्मद ज़ुबैर मुंगेर चले गए और वहीं प्रैकटिस शुरु की और साथी ही सियासत में खुल कर हिस्सा लेने लगे, इसी दौरान मुंगेर ज़िला कांग्रेस कमिटी के सदर चुने गए और श्रीकृष्ण सिंह नाएब सदर और यहीं से शुरु होता है श्रीकृष्ण सिंह का सियासी सफ़र जो उन्हे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक ले जाता है।

श्रीकृष्ण सिंह ख़ुद को शाह मोहम्मद ज़ुबैर का शागिर्द मानते थे …. शहर मुंगेर के ज़ुबैर हाऊस मे ही “श्रीकृष्ण सिंह” ने सियासत सीखी, यहीं उनकी मुलाक़ात हिन्दुस्तान के बड़े से बड़े नताओं से हुई चाहे वो गांधी हों या मोती लाल या मौलाना जौहर…।

रॉलेक्ट एैक्ट के विरोध में शाह मोहम्मद ज़ुबैर गांधी के साथ हो लिये और इस एैक्ट की खुल कर मुख़ालफ़त की।

ख़िलाफ़त और असहयोग तहरीक में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, इसी तहरीक के दौरान उन्हे मुंगेर की एक मस्जिद में तक़रीर करना था, काफ़ी तादाद में लोग उनका इंतज़ार कर रहे थे तब शाह मोहम्मद ज़ुबैर मस्जिद में श्रीकृष्ण सिंह का हांथ पकड़े हुए मस्जिद में दाख़िल होते हैं, और श्रीकृष्ण सिंह को तक़रीर करने कहते हैं, श्रीकृष्ण सिंह ने मस्जिद से हिन्दु मुस्लिम एकता, ख़िलाफ़त और असहयोग तहरीक के समर्थन में एक इंक़लाबी तक़रीर की जिसकी गुंज काफ़ी दुर तक सुनाई दी, हिन्दु मुस्लिम हर जगह मज़बुती के साथ एक जगह नज़र आने लगे।

1 अगस्त 1920 को असहयोग तहरीक के समर्थन में ख़िलाफ़त डे मनाया और उन्होने वकालत का पेशा हमेशा के लिए छोड़ दिया, ख़ानक़ाह मुजीबिया और फुलवारी शरीफ़ के बाअसर लोगों ने उनके कौल पर लब्बैक कहा, ख़ानक़ाह मुजीबिया के शज्जादानशीं शाह बदरुद्दीन साहेब नें शम्सुल उल्मा का ख़िताब वापस कर दिया, शाह सुलेमान फुलवारी शरीफ़ ने मेजिस्ट्रेट और मौलवी नुरुल हसन नें लेजिस्लेटिव कौंसिल के पद से इस्तिफ़ा दे दिया।

दिसम्बर 1920 में अली बेरादर अपनी वाल्दा बी अम्मा और गांधी जी के साथ मुंगेर आते हैं और ये लोग शाह मोहम्मद ज़ुबैर के मुंगेर स्थित ज़ुबैर हऊस में ठहरते हैं, गांधी ने आस पास का दौरा किया, शाह मोहम्मद ज़ुबैर के साथ उन्होने आस पास के पुरे इलाक़े का दौरा किया और साथ तिलक स्वारज संस्था के लिए चंदा भी किया, साथ ही असहयोग आंदोलन को कामयाब बनाने की अपील भी की, उन्हे लोगों का भरपुर समर्थन मिला, आम लोगो ने जहां सरकारी ओहदे, सर्टीफ़िकेट, नवाज़िशों का बाईकॉट किया वहीं बी अम्मा आबदी बानो बेगम के कहने पर मुस्लिम महीलाओं ने विदेशी कपड़ों में आग लगाई, इस काम में शाह मोहम्मद ज़ुबैर की पत्नी बी.बी.सदीक़ा आगे आगे थीं।

इस दौरान मुंगेर ज़िला सियासी कांफ़्रेंस लख्खीसराए में मौलाना शौकत अली की सदारत में हुआ, यहां बी.अम्मा ख़ुद मौजुद थीं, ये जलसा कामयाब रहा और इसके बाद जमालपुर में भी एक प्रोग्राम हुआ, इसके बारे में मौलाना शौकत अली ख़ुद कहते हैं की उनकी पहली सियासी तक़रीर मुंगेर में ही हुई।

असहयोग आंदोलन को कामयाब होता देख वाईसराय ने लार्ड सिन्हा को हुक्म दिया के वो मुंगेर जा कर हालात का जायज़ा लें, फ़रवरी 1921 में लार्ड सिन्हा मुंगेर गए जहां उनका मुकम्मल बाईकॉट किया गया, लोगो ने उन्हे देखना तक दवारा नही किया, यहां तक के उस दिन हड़ताल किया गया, ये बात शाह मोहम्मद ज़ुबैर की अवामी मक़बुलियत बताने को काफ़ी है।

जुलाई 1921 में प्रींस ऑफ़ वेल्स का मुकम्मल बाईकॉट किया गया, इसमे शाह मोहम्मद ज़ुबैर की क़यादत में मुंगेर भी आगे आगे था, इस वजह कर पहले इन्हे नज़रबंद किया गया फिर इन्हे, श्रीकृष्ण सिंह, शफ़ी दाऊदी, बिन्देशवरी और क़ाज़ी अहमद हुसैन को गिरफ़्तार कर भागलपुर जेल भेज दिया गया, गांधी ने इस गिरफ़्तारी की मज़म्मत की पर शाह मोहम्मद ज़ुबैर के साल क़ैद की सज़ा हुई।

1922 में कांग्रेस का इजलास गया शहर में हुआ, स्वाराज पार्टी वजुद में आई, मोती लाल नेहरु उसके लीडर थे, 1923 में जेल से छुटने के बाद शाह मोहम्मद ज़ुबैर स्वाराज पार्टी में शामिल हो गए और उन्हे सिक्रेट्री बना दिया गया।

1923 में ही डिस्ट्रीक्ट बोर्ड और मुंस्पेल्टी का इलेकशन हुआ मुंगेर ज़िला से शाह मोहम्मद ज़ुबैर जीते और उन्हे चेयरमैन बनाया गया और श्रीकृष्ण सिंह को डिप्टी चेयरमैन बनाया गया।

1923 में ही शाह मोहम्मद ज़ुबैर ने सबसे पहले किसान सभा नाम संगठन बना कर किसानो के हक़ के लिए आवाज़ उठानी शुरु की, वो ख़ुद इस संगठन के सदर थे और श्रीकृष्ण सिंह को नाएब सदर।

1925 में बिहार स्टेट सियासी कांफ़्रेंस पुर्वलिया में हुआ जिसमें गांधी जी ख़ुद शरीक थे, शाह मोहम्मद ज़ुबैर ने इस कांफ़्रेंस की सदारत की और सदारती तक़रीर में हर मुद्दे को बेहतरीन तरीक़े से उठाया साथी ही “देही तंज़ीम” का भी स्कीम रखा, ये स्कीम हिन्दुस्तान के देहातो को जगाने की स्कीम थी, वो किसान सभा बना कर पहले ही इसे आज़मा चुके थे, चुंके शाह मोहम्मद ज़ुबैर की परवरिश देहात में हुई थी, इस लिए वो इस बात को बख़ुबी जानते और समझते थे के बिना गांव के लोगों को बेदार किये आप कोई भी बड़ा इंक़लाब नही पैदा कर सकते हैं, वैसे भी हिन्दुस्तान गांव में बस्ता है. वो गांव से तामीराती काम शुरु कर वहां के लोगों को बेदार करना चाहते थे।

1926 में शाह मोहम्मद ज़ुबैर कॉऊंसिल ऑफ़ स्टेट के लिए नोमिनेट हो कर दिल्ली पहुंचे, चार में से एक सीट उनके हिस्से आई बाक़ी तीन से अनुग्रह नारायण सिंह, राजेंद्र प्रासाद और दरभंगा महराज कामयाब हुए, यहां श्रीकृष्ण सिंह दरभंगा महराज के मुक़ाबले हार गए।

इसी दौरान एक बार फिर से स्वाराज पार्टी के सिक्रेट्री मुंतख़िब हुए 1926 से ले कर 31 अक्तुबर 1929 तक इस पार्टी के सिक्रेट्री की हैसियत से अपने फ़रायज़ अंजाम दिये, इसी बीच जब कांग्रेस ने मुकम्मल आज़ादी (पुर्ण स्वाराज) की मांग की तो शाह मोहम्मद ज़ुबैर ने कॉऊंसिल ऑफ़ स्टेट से इस्तीफ़ा दे दिया, अंग्रेज़ो ने उन्हे ये लालच भी दिया के वो अगर उनका साथ दें तो वोह उन्हे “सर” का ख़िताब देंगे, पर कोर्ट टाई पहनने वाला शख़्स अब खादी के कपड़े पहनता था, वो अब कहां बिकने वाला था, उन्होने ये कहते हुए साफ़ इंकार कर दिया के मेरे पास ‘सर’ से भी बड़ा लक़ब है और वो गांधी का भरोसा..।

1927 में शाह मोहम्मद ज़ुबैर साईमन कमीशन बिहार से भगाने वाले वास्तविक सूत्रधारो में से थे।

1928 में ब्हार युथ कान्फ़्रेंस मुंगेर शहर में हुआ, तो सारी ज़िम्मेदारी शाह मोहम्मद ज़ुबैर ने अपने कांधे पर लिया और इस कान्फ़्रेंस को कामयाब बनाने में कोई क़सर नही छोड़ा, इसी कान्फ़्रेंस में उन्होने ख़ेताब करते हुए नौजवानो से एक और नेक राह पर चलने की अपील की।

सविनय अवज्ञा आंदोलन के समर्थन में शाह मोहम्मद ज़ुबैर ने 23 अप्रील 1930 को बड़हय्या में ख़ुद अपने हांथ से नमक बनाया, उनकी क़यादत में हज़ारो लोगों ने नमक तैयार कर के नमक क़नून तोड़ दिया।

इसी बीच हसन इमाम की बेटी ‘मिस सामी’ के क़यादत मे मिस सी.जी.दास , मिस गौरी और बिहार की कई औरतों ने मिल कर 15 जुलाई 1930 को एक औरतों के एक आंदोलन का आग़ाज़ किया जिसके तहत औरतों को विदेशी सामान के बाईकॉट करने के लिए प्रेरित करना था।

मुंगेर मे इस आंदोलन के कामयाब बनाने के लिए शाह मोहम्मद ज़ुबैर की पत्नी बी.बी.सदीक़ा भी कुद पड़ीं और एक जनता के सेवक के रुप मे उन्होने इस काम को और आगे बढ़ाया. 25 जुलाई 1930 को उन्होने मुंगेर मे एक बड़े जलसे को ख़िताब किया. इसके बाद उन्होने एक कमीटी तशकील की जिसके तहत विदेशी सीमान के बाईकाट करने के साथ साथ लोगो को स्वादेशी सामान ख़रीदने के लिए जागरुक किया जा सके।

इधर शाह मोहम्मद ज़ुबैर की सेहत में बहुत ही गिरावट होने लगा, ये गिरावट 1923 में जेल से निकलने के बाद ही शुरु हो चुका था, पर मुल्क की आज़ादी की तड़प में ये मर्द ए मुजाहिद कहां चैन बैठने वाला था, इन्हे गोल मेज़ सम्मेलन में हिस्सा लेने इंगलैंड जाना पर उपर वाले को कुछ और ही मंज़ुर था, 12 सितम्बर 1930 को हिन्दुस्तान का ये बेटा मात्र 46 की उम्र में अपने मुल्क की आज़ादी का ख़्वाब अपने सीने में लिये इस दुनिया से रुख़सत हो गया, पुरे मुंगेर में रंज ओ ग़म का माहौल था, पुरी अवाम उनके घर पर मौजुद थी, अगर वहां कोई नही था तो वोह उनका छोटा भाई ‘शाह मोहम्मद उमैर’.. वोह उस समय हिन्दुस्तान की आज़ादी की ख़ातिर हज़ारीबाग़ जेल में क़ैद थे, और इस बात का ज़िक्र वो अपनी किताब “तलाश ए मंज़िल” में ख़ुद करते हैं।

श्रीकृष्ण सिंह भारत के बिहार राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री (1946–1961) थे। और उनके अनुसार उन्हे “श्रीकृष्ण सिंह” से “श्री बाबू” बनाने का योगदान सिर्फ़ एक आदमी को जाता है और वो हैं “शाह मोहम्मद ज़ुबैर” और इन्ही के छोटे भाई का नाम है शाह मोहम्मद उमैर… और इनके छोटे भाई का नाम था “शाह मोहम्मद ज़ोहैर” असल मे ये 4 भाई थे और चारो भाईयो ने ही हिन्दुस्तान की आज़ादी मे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।

आज शाह मुहम्मद ज़ुबैर की सियासी विरासत को उनके पोते Nationalist Congress Party – NCP सांसद Tariq Anwar (कटीहार) और Shah Imran (नाना) ने सम्भाल रखा है।

Md Umar Ashraf

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वो बादशाह का चेहरा नही बल्कि दुनिया के सबसे बड़े भिखारी का चेहरा था, जो आज़ाद सांस की भीख मांग रहा था.

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17 अक्टूबर 1858 को बाहदुर शाह ज़फर मकेंजी नाम के समुंद्री जहाज़ से रंगून पहुंचा दिए गये थे ,शाही खानदान के 35 लोग उस जहाज़ में सवार थे ,कैप्टेन नेल्सन डेविस रंगून का इंचार्ज था , उसने बादशाह और उसके लोगों को बंदरगाह पर रिसीव किया और दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी हुकूमत के बादशाह को लेकर अपने घर पहुंचा !

बहादुर शाह ज़फर कैदी होने के बाद भी बादशाह थे, इसलिए नेल्सन परेशान था, उसे ये ठीक नही लग रहा था कि बादशाह को किसी जेल ख़ाने में रखा जाये … इसलिए उसने अपना गैराज खाली करवाया और वहीँ बादशाह को रखने का इंतज़ाम कराया !

बहादुर शाह ज़फर 17 अक्टूबर 1858 को इस गैराज में गए और 7 नवंबर 1862 को अपनी चार साल की गैराज की जिंदगी को मौत के हवाले कर के ही निकले , बहादुर शाह ज़फर ने अपनी मशहुर ग़ज़ल इसी गैराज में लिखा था ….

लगता नही है दिल मेरा उजड़े दियार में
किस की बनी है है आलम न पायेदार में

और

कितना बदनसीब है ज़फर दफ़न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिले कुए यार में..

7 नवंबर 1862 को बादशाह की खादमा परेशानी के हाल में नेल्सन के दरवाज़े पर दस्तक देती है , बर्मी खादिम आने की वजह पूछता है ..खादमा बताती है बादशाह अपनी ज़िन्दगी के आखिरी साँस गिन रहा है गैराज की खिड़की खोलने की फरमाईश ले कर आई है …. बर्मी ख़ादिम जवाब में कहता है … अभी साहब कुत्ते को कंघी कर रहे है .. मै उन्हें डिस्टर्ब नही कर सकता …. ख़ादमा जोर जोर से रोने लगती है … आवाज़ सुन कर नेल्सन बाहर आता है … ख़ादमा की फरमाइश सुन कर वो गैराज पहुँचता है …..!

बादशाह के आखिरी आरामगाह में बदबू फैली हुई थी ,और मौत की ख़ामोशी थी … बादशाह का आधा कम्बल ज़मीन पर और आधा बिस्तर पर … नंगा सर तकिये पर था लेकिन गर्दन लुढ़की हुई थी ..आँख को बहार को थे .. और सूखे होंटो पर मक्खी भिनभिना रही थी …. नेल्सन ने ज़िन्दगी में हजारो चेहरे देखे थे लेकिन इतनी बेचारगी किसी के चेहरे पर नही देखि थी …. वो बादशाह का चेहरा नही बल्कि दुनिया के सबसे बड़े भिखारी का चेहरा था … उसके चेहरे पर एक ही फ़रमाइश थी …. आज़ाद साँस की !

हिंदुस्तान के आखिरी बादशाह की ज़िन्दगी खत्म हो चुकी थी ..कफ़न दफ़न की तय्यारी होने लगी ..शहजादा जवान बख़्त और हाफिज़ मोहम्मद इब्राहीम देहलवी ने गुसुल दिया … बादशाह के लिए रंगून में ज़मीन नही थी … सरकारी बंगले के पीछे खुदाई की गयी .. और बादशाह को खैरात में मिली मिटटी के निचे डाल दिया गया ……

उस्ताद हाफिज़ इब्राहीम देहलवी के आँखों को सामने 30 सितम्बर 1837 के मंज़र दौड़ने लगे …जब 62 साल की उम्र में बहादुर शाह ज़फर तख़्त नशीं हुआ था …वो वक़्त कुछ और था ..ये वक़्त कुछ और था ….इब्राहीम दहलवी सुरह तौबा की तिलावत करते है , नेल्सन क़बर को आखिरी सलामी पेश करता है …और एक सूरज गुरूब हो जाता है !

Ar Ibrahimi साहेब की क़लम से

 

 

क्रांतिदुत अज़ीमउल्लाह ख़ान : जिसने दिया ‘भारत माता की जय’ का नारा⁉

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आम तौर पर 1857 में शुरु हुए विद्रोह को हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम का पहला आंदोलन कहा गया, जबके एैसा कुछ है नही, 1757 ई. से लेकर 1857 ई. तक हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के विरुद्ध छोटा बड़ा विद्रोह चलता रहा। जहाँ कहीं स्थानीय धर्मगुरु, साधुसंत, फ़क़ीर, युवकों एवं विभिन्न जनजातियों तथा कृषक वर्ग ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ अनेकों बार संघर्ष या विद्रोह किया।

पर 1857 में पहली बार स्थानीय लोगों को ज़मींदारों, क्षेत्रीय शासकों का साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ़ संगठित रूप से मिला, जिनके फलस्वरूप 1857 के विद्रोह हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम का पहला आंदोलन कहा गया।

ये बात किसी से छुपी नही है जब किसी आंदोलन को पैसे वाले और ताक़तवर लोग का साथ मिलता है तो वो और मुखऱ हो जाता है, और यहां भी वही हुआ..

दानापुर से दमदम तक , मेरठ से ले कर सीहोर तक जासुस बिछा दिए गए.. तरह तरह के प्रोपागंडे और अफ़वाह को हवा दी गई..

जिसमे सबसे स्पष्ट रूप में चर्बी वाले कारतूसों की शिकायत के अफ़वाह का उल्लेख मिलता है, ‘मेरठ से लेकर सीहोर तक के फ़ौजियों की यह शिकायत थी कि जो नये कारतूस फ़ौज में उपयोग किये जा रहे हैं उनमें गाय और सुअर की चर्बी मिली हुई है। सिपाहियों के ज़ेहन में ये बात डाला गया कि अंग्रेज़ हिन्दुस्तानियों की दीन-ईमान को ख़राब कर देना चाहते हैं, फिर क्या था हो गई बग़ावत।

10 मई 1857 को मेरठ छावनी की पैदल सैन्य टुकड़ी ने भी इस कारतूसों विरोध कर दिया और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ बग़ावत का बिगुल बजा दिया। 12 मई 1857 को इन्ही विद्रोहियों ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया और बहादुरशाह जाफ़र को अपना सम्राट घोषित कर दिया।

इसके बाद जगह जगह बग़वत हुई, वतन परस्त हिन्दुओं और मुसलमानों की कई टोलियां हाथ मे निशाने महावीरी और निशाने मोहम्मदी लिए, ‘हर हर महादेव’ और ‘अल्लाह ओ अकबर’ का नारा लिए हुए फ़िरंगीयों पर टुट पड़ते हैं।या तो जाम ए शहादत नसीब हुई या फिर फ़तह, कई जगह जीत हासिल करने के बाद बागियों ने अपनी आज़ाद सरकार की बुनियाद डाली और बाग़ियों की सरकार दर्शाने के लिये दो झण्डे निशाने मोहम्मदी और निशाने महावीरी लगाये गये।

1857 की क्रांति कानपूर में फ़ैल गया था, कानपूर के क्रांतिकारी का नेतृत्व नाना साहब के हाथ में था , 4 जून 1857 में क्रांतिकारी की गुप्त बैठक हुई उसमे शमशुद्दीन ख़ां, नाना साहेब, अज़ीमुल्लाह ख़ान, तात्या टोपे, अज़ीज़न सहित कई क्रांतिकारी शामिल हुए.. चुंके कानपूर की पहली लड़ाई में नाना साहेब जीत चुके थे, इसलिए उन्हें विठुर का शासक बना दिया गया..

कुंवर सिंह के क़यादत (नेतृत्त्व) में दानापुर के बाग़ी फ़ौज ने सबसे पहले आरा पर धावा बोल दिया। इन्क़लाबियों ने आरा के अंग्रेज़ी ख़ज़ाने पर क़ब्जा कर लिया। जेलख़ाने के कैदियों को रिहा कर दिया गया। अंग्रेज़ी दफ़्तरों को ढाहकर आरा के छोटे से क़िले को घेर लिया, इस तरह 27 जुलाई 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और दीगर साथियों के साथ मिलकर बाबु कुंवर सिंह ने सिर्फ़ क़िला बल्के पुरे आरा शहर पर ही कब्ज़ा कर लिया, और यहां आज़ाद सरकार की बुनियाद डाली, और सरकार की निशानी के तौर पर क़िले दो झण्डे निशाने मोहम्मदी व निशाने महावीरी लगाये गये।

अब सवाल ये उठता है के एक सिपाही की बग़वात ने पुरे मुल्क मे इंक़लाब आख़िर कैसे पदा कर दी … ?? ये जानने के लिए आपको क्रांतिदुत अज़ीमउल्लाह ख़ान के बारे मे पढ़ना पड़ेगा!!

अब सवाल ये उठता है अज़ीमउल्लाह ख़ान कौन थे ? 1857 की क्रांति मे उनका क्या रोल था ? उनका पुरा नाम था अज़ीमउल्लाह ख़ान युसुफ़ज़ई, और उन्हे क्रांतिदुत अज़ीमउल्लाह ख़ान के नाम से भी जाना जाता है, क्रांतिदुत इस लिए क्योंके उन्होने ही 1857 की क्रांति को भारत के चप्पे से ले कर दुसरे मुल्कों तक पहुंचाया।

अजीमुल्ला ख़ान का जन्म सन 1820 में कानपुर शहर के समीप पटकापुर में हुआ था। उनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और परिवार गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहा था। बचपन में ही अंग्रेज़ सैनिकों द्वारा अज़ीमुल्लाह के पिता के साथ दुर्व्यवहार किया गया, जिसका अज़ीमुल्लाह चश्मदीद गवाह और भुक्त भोगी भी थे। उनके पिता को छत से नीचे गिरा दिया और फिर ऊपर से ईंट फेंककर मारा गया, जिसके बाद वो छ: माह बिस्तर पर पड़े रहे और फिर उनका इंतक़ाल भी हो गया। अब अपनी माँ के साथ बालक अज़ीमुल्लाह ख़ान बेसहारा होकर बेहद गरीबी की ज़िन्दगी जीने को मजबूर हो गये। अब आठ साल के बच्चे अज़ीमुल्लाह ख़ान के लिए दुसरों के यहाँ जाकर काम करना एक मजबूरी बन गई। उनके एक पड़ोसी ने उन्हे एक अंग्रेज़ अफ़सर हीलर्सडन के घर की सफ़ाई का काम दिलवा दिया। अब अज़ीमुल्लाह ख़ान अंग्रेज़ अफ़सर हीलर्सडन के यहाँ रहने लगे। घर का काम करते हुए उन्होंने हीलर्सडन के बच्चों के साथ अंग्रेज़ी और फ्रेंच ज़ुबान भी सीख ली। इसके बाद हीलर्सडन की मदद से उन्होंने स्कूल में दाखिला भी ले लिया। स्कूल की पढ़ाई ख़्तम होने के बाद हीलर्सडन की सिफारिश से उसी स्कूल में उन्हें टीचर की नौकरी भी मिल गयी। स्कूल में मौजुद टीचर से ही अज़ीमुल्लाह ख़ाँ उर्दू, फ़ारसी, हिन्दी और संस्कृत भी सीखने लगे।

इसी के साथ अब वे देश की राजनितिक, आर्थिक तथा धार्मिक, सामाजिक स्थितियों में तथा देश के इतिहास में भी रुचि लेने लगे। उन्होने जी लगा कर पढ़ाई की जिसके बाद अज़ीमुल्लाह ख़ाँ के नाम के चर्चा पुरे कानपुर में होने लगा। उनकी पहचान एक ऐसे शख़्स के रूप में होने लगी, जो अंग्रेज़ी रंग में रंगा होने के वावजूद अंग्रेज़ी हुकूमत का हिमायती नहीं था, उस ज़माने में किसी हिन्दुस्तानी का अंग्रेज़ी और फ्रेंच ज़ुबान पर उबुर हासिल करना एक बड़ी बात थी।

यही वजह है के अज़ीमुल्लाह ख़ान की यह शोहरत कानपुर के पास रह रहे नाना साहब तक भी पहुँच गई। उन्होंने अज़ीमुल्लाह ख़ाँ को अपने यहाँ बुलाया और अपना दीवान बना दिया। अज़ीमुल्लाह ख़ाँ ने वहाँ रहकर घुडसवारी, तलवारबाज़ी और जंगी तरबियत भी सीखी। इसी बीच 1853 मे अंग्रेज़ गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौज़ी की हुकूमत ने नाना साहब की आठ लाख रुपये की सालाना पेंशन बंद कर दी जिसके बाद अज़ीमुल्लाह ख़ान नाना साहब के नुमाईंदे की हैसियत से उनकी पेंशन की अर्ज़ी को लेकर इंग्लैण्ड गये। इंग्लैण्ड में उनकी मुलाक़ात सतारा रियासत के नुमाईंदे रंगोली बापू से हुई। रंगोली बापू सतारा के राजा के राज्य का दावा पेश करने के लिए लंदन गये हुए थे। सतारा के राजा के दावे को ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ के ‘बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर’ ने खारिज कर दिया। अज़ीमुल्लाह ख़ान को भी अपने पेंशन के दावे का अंदाज़ा पहले ही हो गया। अाख़िर में हुआ भी वही।

कहा जाता है की रंगोली बापू के साथ बातचीत में अज़ीमुल्लाह ख़ान ने इन हालातों में अंग्रेज़ी हुकुमत के ख़िलाफ़ हथियारबमद आंदोलन की ज़रुरत को ज़ाहिर किया था। फिर इसी अज़्म के साथ दोनों वापस हिन्दुस्तान लौटने लगे। हिन्दुस्तान पहुँचने से पहले वे लोग यूरोप के देशों में घूमकर वहां के हालात के बारे में पत कर लेना चाहते थे।

इन्ही सब बातों ज़ेहन में रख वह कुस्तुनुतुनिया जा पहुँचे और वहां देखा की क्रीमिया के युद्ध में रूस के मुकाबले इंग्लैंड, तुर्की और फ़्रांस की संयुक्त फौज हार गई है | 1854 में वो क्रीमिया के जंगी मैदान भी गए जहां हारे हुए अंग्रेज़ी सिपाहीयों के लीडरशिप का मुआयना किया, साथ ही रुस और तुर्की के जासुसो से भी तालुक़ात बढ़ाए, अग्रेज़ो के बहादुरी का खोखलापन उनके सामने था, वह सोचने लगे अगर हिन्दुस्तान की देसी रियासते संयुक्त होकर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ जंग करें तो अंग्रेज़ों को भगाया जा सकता है, इस घटना ने उनके दिल में इंक़लाब और आशावाद का संदेश दिया। हिन्दुस्तान लौटते समय वो अपने साथ कई फ्रंच प्रिंटिंग मशीन लेते आए, जिसकी मदद से वो पुरे इलक़े में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पर्चे बटवाने लगे.. अज़ीमुल्लाह ख़ान ने नाना साहब से आपसी विमर्श करने के बाद कई व्यक्तियों को संगठित किया, फिर इन लोगो की मदद से अज़ीमुल्लाह ख़ान जगन्नाथपुरी, पंचवटी, रामेश्वरम, द्वारिका, नासिक, अजमेर, दिल्ली जैसी तमाम मज़हबी स्थानों की यात्रा की, लोगों को अंग्रेज़ो के चाल के बारे में बताया गया, जो लोग अंग्रेज़ो से पहले से नाराज़ थे उन्हे पुरा लेखा जोखा दिया गया, कई बार एैसा हुआ के नाना साहब दरगाहों, मज़ारों और मस्जिदों के चौखट पर जा कर लोगों से बात करते और अज़ीमउल्लाह ख़ान मंदिर, मठ और साधु संतों के बीच जा कर बात करते , इसका बहुत ही अच्छा प्राभाव पड़ा, जहां बिहार के हिन्दु और मुस्लिम राजपुत योद्धा बाबु कुंवर सिंह के साथ खड़े हो गए तो वहीं इल्लाहाबाद के पांडो ने मौलवी लियाक़त अली को अपना लीडर माना, एैसा ही हर जगह देखने को मिला।

उन दिनों रूस व इंग्लैण्ड में युद्ध जारी था, जिसका मक़सद क्रमिया पर क़ब्ज़ा करना था, 1857 में अंग्रेज़ो ने तुर्कों से अपनी दोस्ती का हवाला देते हुए उस्मानी ख़लीफ़ा से भारतीय मुस्लिमों के लिए ये फ़तवा ले लिया के अंग्रेज़ के ख़िलाफ़ जो भी जंग लड़ रहा है वो वहाबी है, और इस हिसाब से अंग्रेज़ो ने सुफ़ी बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को भी वहाबी घोषित करने की बहुत कोशिश की, अहमदुल्लाह शाह फ़ैज़ाबादी को वहाबी कहा गया , पचास हज़ार का ईनाम रखा गया, ये सब प्रोपेगंडा के तहत किया गया, तब अज़ीमुल्लाह ख़ान ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध रूसियों से मदद लेने का भी प्रयास किया था।

आख़िर ‘भारत माता की जय’ का नारा आया कहां से ⁉

आम तौर पर माना जाता है के भारत देश का नाम भारत नामक जैन मुनि के नाम पर पड़ा है, कई जगह यह भी मान्यता है कि शकुन्तला के बेटे भरत जो बचपन में शेरो के संग खेलकर बड़े हुए, उनके नाम पर देश का नाम भारत पड़ा। यह भी हो सकता है कि राम के भाई भरत के नाम पर भारत नाम पड़ा हो या कृष्ण से 500 साल पहले नाट्यशास्त्र के मशहूर योगी भरत के नाम पर पड़ा हो !! जब ये सारे नाम पुल्लिंग हैं तो ये बीच में भारत माता कहां से आ गई ?

असल में क्रांतिदुत अज़ीमउल्लाह ख़ान ने “मादर ए वतन हिन्दुस्तान की जय” का नारा दिया था, जिसका मतलब हुआ मां का मुल्क हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद, और ये पुरा लह्जा फ़ारसी का है जिसमें उर्दु और हिन्दी के लफ़्ज़ को साथ जोड़ा गया, बहरहाल, ‘हर हर महादेव’ और ‘अल्लाह ओ अकबर’ के नारों के साथ “मादर ए वतन हिन्दुस्तान की जय” का नारा भी इंक़लाबियों के मुंह पर आ गया जिसे तमाम मज़हब के इंक़लाबी लगाया करते थे, बाद में यही नारा कुछ साल बाद 19वीं में हिन्दी उर्दु झगड़े की भेंट चढ़ गया, हिन्दी हिन्दुओं की ज़बान हो गई और उर्दु मुसलमान की, जिसके बाद बेरादरान ए वतन हिन्दु ‘भारत माता की जय’ कहने लगे और मुसलमान ‘हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद’ कहने लगे, बाद मे इन दोनो नारों की जगह बंकिन चंद चट्रजी के ‘वंदे मातरम’ और हसरत मोहानी के ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ ने ले ली, हिन्दु मुसलिम के मज़हबी एकता के नाम पर शुरु हुआ 1857 का आंदोलन अपने 50 साल होते होते ही हिन्दु मुसलिम दुशमनी का एक रुप ले लिया वो भी ज़बान और नारों के रुप में… हिन्दु मुसलिम दुशमनी को दुर कर एक बार फिर से अंग्रेज़ो पर टुट पड़ने का प्लान नेता जी सुभाष चंद्रा बोस औऱ ‘जय हिन्द’ का नारा देने वाले आबिद हसन साफ़रानी ने बनाया पर बहुत हद तक नाकामयाब रहे, फिर मुल्क बटा, लाहौर पाकिस्तान में चला गया और साथ ही “सरे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा” लिखने वाले अल्लामा इक़बाल का रौज़ा भी..

क्रांतिदुत अज़ीमउल्लाह ख़ान युसुफ़ज़ई 1859 तक हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए ख़ाक छानते रहे और 39 साल की उम्र में उनका इंतक़ाल हो गया।

हिन्दुस्तान के लिए एक गीत रचा था इस अज़ीम योद्धा अज़ीमुल्लाह ख़ान ने, उसी गीत के साथ उन्हे ख़िराज ए अक़ीदत ❤

हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा,
पाक वतन है क़ौम का जन्नत से भी न्यारा।

ये है हमारी मिल्कियत, हिन्दुस्तान हमारा
इनकी रूहानियत से रोशन है जग सारा।

कितना क़दीम कितना नईम, सब दुनिया से प्यारा,
करती है ज़रख़ेज़ जिसे गंगो-जमुन की धारा।

ऊपर बर्फ़ीला पर्वत पहरेदार हमारा,
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा।

इसकी खानें उगल रही हैं, सोना, हीरा, पारा,
इसकी शानो-शौकत का दुनिया में जयकारा।

आया फ़िरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा,
लूटा दोनों हाथ से, प्यारा वतन हमारा।

आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा,
तोड़ो गुलामी की जंज़ीरें बरसाओ अंगारा।

हिन्दू-मुसलमां, सिख हमारा भाई-भाई प्यारा,
यह है आज़ादी का झंडा, इसे सलाम हमारा।

Md Umar Ashraf

फ़ोटो :- “Rashtra Poshok Dhanda”, old poster by Anant Shivaji Desai and printed at R. U. & V. Press, Ghatkopar,

#BharatMataKiJaye #JaiHind

जब मुसलमान होने की बुनियाद पर 3 दिन में क़त्ल कर दिए गए 8373 लोग !!

 

#SrebrenicaMassacre

दुसरी जंग ए अज़ीम (दूसरे विश्व युद्ध) के बाद बोस्निया सोशलिस्ट यूगोस्लाविया का हिस्सा बन गया था, पर कोल्ड वार की वजह कर सोशलिस्ट यूगोस्लाविया की हालत ख़राब हो चुकी थी, अलगाव अपने उरुज पर था, इस लिए बोस्निया ने ख़ुद को यूगोस्लाविया से अलग करने के लिए 29 फ़रवरी 1992 को एक रिज़ुलुशन पास किया, बोस्निया में तीन नसल की मिली जुली आबादी थी, जिसमे बोस्निया के मुस्लिम और क्रोएशियाई यूगोस्लाविया से अलग होना चाहते थे जबकि बोस्नियाई सर्ब लोग इसके ख़िलाफ़ थे, फिर भी 3 मार्च 1992 को बोस्निया ने ख़ुद को यूगोस्लाविया से अलग कर लिया, 6 अप्रील 1992 को युरोप युनियन और उसके अगले दिन अमेरीका ने एक ख़ुद मुख़्तार मुल्क के रुप में बोस्निया को मन्यता दे दी, जहां बोस्नियाई मुस्लिम की आबादी 44% वाहीं और्थोडाक्स सर्ब भी 32.5% और कैथोलिक क्रोएशियाई की आबादी भी 17% थी, और यहीं से शुरु हुआ सत्ता और ताक़त का खेल !! चुंके सोशलिस्ट यूगोस्लाविया में सर्ब और क्रोएशियाई फ़ौज और पुलिस में अधिक थे इसलिए ना ही उन्हे हथियार की ज़रुरत पड़ी और ना हथियार चलाने की ट्रेनिंग, वो पहले से ही ट्रेंड थे. बोस्नियाई मुस्लिम के पास साजिश के तहत हथियार नहीं पहुंचने दिया गया उल्टे उसके समुंद्र के रास्ते यानी साहिल को सील करने के नियत से बिलकुल ही नए मुल्क क्रोएशिया को दे दिया गया, जिस्से बोस्नियाई मुस्लिम पुरी दुनिया से पुरी तरह कट गए, और फिर शुरु हुआ मुसलमानों के नरसंहार का नंगा नाच, जिसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप का सबसे बड़ा नरसंहार माना जाता है, इसमे ना सिर्फ़ सर्बिया समर्थित सर्ब-ईसाईयों की फ़ौज मुलव्विस थी बल्के UNO और NATO ने भी इस घिनौनी हरकत में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था, इस पुरे हरकत को लोग बोस्निया गृहयुद्ध कहते हैं, पर हक़ीक़त ये बोस्नियाई मुस्लिम का एक तरफ़ा क़त्लेआम था जिसे पुरे ईसाई दुनिया खुला और मौन दोनो समर्थन हासिल था, मानो कोई सलीबी जंग (क्रुसेड) का एलान हुआ हो, क़त्लेआम की शुरुआत उन इलाक़ों से की गई जो दो सर्ब बहुल इलाक़ो मे आते थे, मक़सद था मुसलमानो को मार कर या भगा कर एक अलग सर्ब रियासत बनाया जाए, आज उस जगह का नाम स्रपस्का है, जहां आज 82.22% सर्ब रहते हैं, और जिस जगह क़त्लेआम किया गया उसका नाम पौडरिंऩए है, ठीक यही काम पुर्वी बोस्निया में किया गया, हज़ारो की तादाद में बोस्नियाई मुस्लिम क़त्ल किए गए, गांव के गांव जला कर ख़्तम कर दिए गए.. अप्रील से जुन यानी 90 दिन में 296 गांव पुरी तरह बर्बाद कर दिए गए, ब्रेटुनिक में जहां 1156 से अधिक बोस्नियाई मुस्लिम क़त्ल किए गए तो वहीं फ़ोको, ज़वोरनिक, क्रेसका और संगोवो में भी कई हज़ार निहत्थे बोस्नियाई मुस्लिम मार दिए गए.. औऱ वहीं से तक़रीबन 70,000 से अधिक बोस्नियाई मुस्लिम बेघर किए गए… इसमे पुलिस, फ़ौज, पारामलेट्री यहां गांव वाले लोग भी मुलव्विस थे..

शुरुआती जंग मे सर्ब फ़ौज ने स्रेब्रेनित्सा नम के शहर पर क़ब्ज़ा कर बड़ी तादाद में मुस्लिमो का क़त्ल किया और बाक़ी बचे लोगों क वहां से बाहर निकाल दिया पर मई 1992 में नासिर ओरिक की क़यादत बोस्नियाई मुस्लिमों ने स्रेब्रेनित्सा को वापस हासिल कर लिया लेकिन सर्ब फ़ौज ने इस इलाक़े को घेरे रखा, 16 अप्रील 1993 को स्रेब्रेनित्सा UNO द्वारा “सेफ़-ज़ोन” घोषित कर दिया गया, और वहां से तमाम जंगजु तंज़ीमो को बाहर निकलने कहा गया, बोस्नियाई मुस्लिम सिपाहीयों के हाथ से निकल ये इलाक़ा संयुक्त राष्ट्रा के पास चला गया, 19 अप्रील 1993 को संयुक्त राष्ट्रा के सिपाही यहां दाख़िल हुए, बाद में स्रेब्रेनित्सा को ख़ाली करना बोस्नियाई मुस्लिम सिपाहीयों की बहुत बड़ी ग़लती साबित हुई, उस इलाक़े में मौजुद बोस्नियाई मुस्लिम सिपाहीयों के हथियार जमा करने का सिलसिला लगातर जारी रहा वहीं सर्ब फ़ौज को टैंक सहित तमाम हथियार रखने की छुट दे दी गई, UNO ने बोस्नियाई मुस्लिमों को ये यक़ीन दिलाया के ये “सेफ़-ज़ोन” है और यहां हथियार रखने की कोई ज़रुरत नही, बेचार मुसलमान आ गया बहकावे में, सर्बों ने ना सिर्फ़ बाहरी मदद से ख़ुद को मज़बुत किया बलके बोस्निया के दुसरे इलाक़े में मुसलमानो पर लगातार हमला जारी रखा और तीन साल होते होते दो लाख से ज़्यादा मुसलमानो को मार दिया और कई लाख को बेघर भी कर दिया.

बोस्निया युद्ध के दौरान वर्ष 1992 से 1995 तक लोगों के ऊपर कई तरह के अत्याचार हुए. नस्ली जनसंहार और तशदद्दु के साथ-साथ मासूम-औरतों और लड़कियों के साथ बलात्कार जैसे घिनौना अपराध भी किया इन सर्ब आर्मी ने.

हालात का अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं कि बोस्निया युद्ध में 50,000 से अधिक मुस्लिम-महिलाओं को जान-बूझकर हामला (गर्भधारण) किया गया तो कितनों के साथ बलात्कार हुआ होगा..? इतना मजबूर मुसलमान शायद मंगोलो के बग़दाद हमले और स्पेन के ज़वाल के वक़्त ही रहा होगा…? उसके बाद इसकी मिसाल बस बोस्निया में देखने को मिलती है… और इधर क़ौम की बेटियाँ लुटती रहीं और क़ौम के पेशवा सोते रहे, मर्दों और लड़कों को बर्बर तरीक़े से क़त्लेआम किया गया और तिल-तिल कर मरने पर मजबूर किया गया पर नामर्द मानवअधिकार संगठन सोता रहा, और ये सब वो यूरोप कर रहा था जो खुद को सबसे ज़्यादा सभ्य समाज होने का रट्टा मारता है..

उस वक़्त ईरान ने हथियारों से भरा हुआ अपना पानी-वाला जहाज़ बोस्निया के समुंदर के किनारे लगा दिया था कि मजबूर मुसलमानों को सर्ब-आर्मी से लड़ने के लिये कुछ हथियार दिए जा सकें…..पर शांति-स्थापित का जिम्मा उठाये संयुक्त राष्ट्र के शांति-सैनिकों ने इस जहाज़ को किनारे तक पहुँचने ही नहीं दिया की इससे लड़ाई और बढ़ेगी…. जबके क्रोएशियाई फ़ौज की जानिब से कैथोलिक लड़ाके लड़ रहे जो स्पेनिश, आईरिश, पौलिश, फ़्रेंच, स्वेडिश, हंगारिअन, नार्वेयन, कनाडियन, फिन्निश, अलबानियन, सुवेडिश से लेकर इटालियन मुल तक के थे.. वाहीं सर्बों की जानिब रूसी, युनानी, रोमानी सहित कई मुल्क के और्थोडाक्स इस जंग मे हिस्सा ले रहे थे, कुछ मदद तुर्की ने ज़रुर बोस्नियाई मुस्लिमों की, चुंके वो नाटो का मेम्बर है, इस लिए उसने अंडर कवर हथियार स्पलाई की.. बाक़ी अफ़गानिस्तान जंग से लौटे कुछ अरब मुजाहीदीन ज़रुर मदद को गए..

अब जानते हैं दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में होने वाले सबसे बड़े नरसंहार के बारे में जब हर 30 सेंकड में एक मुसलमान क़त्ल किया जाता है ⤵

जुलाई 1995 के शुरु में ही स्रेब्रेनित्सा इलाक़े की तमाम रसद काट दी गई, ख़ास कर हथियार और खाने की चीज़, हथियार की रसद काटने में संयुक्त राष्ट्रा का बड़ा हाथ था, इलाक़े में मौजुद संयुक्त राष्ट्रा शांतिसेना में अधिकतर सैनिक निदरलैंड के थे, 1995 के शुरु में ही साज़िश के तहत जब संयुक्त राष्ट्रा शांतिसेना का कोई सैनिक छुट्टी पर जाता तो उसके जगह ना कोई सैनिक को लाया जाता ना ही उसे ही वापस उस जगह भेजा जाता, ये सिलसिला लगातार चलता रहा यहां तक के निदरलैंड ते सैनिकों की तादाद 400 रह गई।

मार्च 1995 में रावोदान करादज़िच जो स्रपस्का का सदर था, उसने ये हुक्म जारी किया के स्रेब्रेनित्सा की घेराबंदी और सख़्त किया जाए और दुसरे इलाक़े ज़ेपा से उसका राब्ता मुकम्मल तौर पर ख़्तम कर दिया जाए, उस समय कुछ हथियारबंद बोस्नियाई मुस्लिम नासिर ओरिक की क़यादत में वहां मौजुद थे मगर संयुक्त राष्ट्रा शांतिसेना ने उन्हे यहां से जाने को कहा फिर उन्हे वहां से एक हैलिकॉप्टर पर बैठा कर तुज़ला नाम के जगह पर भेज दिया गया। बाक़ी बची बोस्नियाई फ़ौज से हथियार ले कर उन्हे 28 डिविज़न के इख़्तयार में दे दिया गया और इस तरह ये पुरा इलाक़ा सर्बों के रहमो करम पर रह गया, लोग भुख से मरने लगे पर कोई उनका पुछने वाला नही।

9 जुलाई 1995 को स्रपस्का के सदर रावोदान करादज़िच ने जब देखा के स्रेब्रेनित्सा में मौजुद बोस्नियाई मुस्लिम बिलकुल निहत्थे हैं और उनको कोई पुछने वाला नही, तो उसने सर्बों को स्रेब्रेनित्सा पर क़ब्ज़ा करने का हुक्म दे दिया, जिसकी ताक मे ये लोग काफ़ी पहले से लगे हुए थे।

9 जुलाई 1995 को सर्बों ने जनरल रातको म्लादिच की क़यादत में हमला शुरु किया, नाटो ने इसके विरोध में पहाड़ो पर कुछ फ़ाएरिंग की मगर बाद मे ये कह कर रुक गए के इससे स्रेब्रेनित्सा में मौजुद 400 निदरलैंड के सिपाही को नुक़सान हो सकता है। ख़ुद निदरलैंड की फ़ौज ने सर्बों का कोई विरोध नही किया बल्के सर्बों के जीत के बाद उनके साथ शराब पीने की ‘टोस्ट’ की युरोपी रसम अदा किया, बोस्निया का क़साई जनरल रातको म्लादिच ने शहर पर क़ब्ज़ा कर तमाम इमारतों को जला दिया, मुसलमानों के तमाम साईन बोर्ड ये कह कर उखड़वा दिए के आज मौक़ा है के तुर्कों के युरोपी इलाक़ो पर क़ब्ज़ा का बदला लिया जाए।

स्रेब्रेनित्सा शहर पर क़ब्ज़े के बाद वहां मौजुद निहत्थे बोस्नियाई मुस्लिम अब सर्बों के क़ब्ज़ें में थे। 12 जुलाई 1995 को सर्बों ने उन तमाम घरों और इमारत में आग लगा दी जिसमे लोगों ने पनाह ले रखी थी, और सैकड़ों की तादाद में लोग क़त्ल कर दिए गए जो सिर्फ़ ज़ुल्म की एक इबतिदा थी। लाशों ट्रक पर लाद लाद कर दुसरे जगह ले जा कर दफ़नाया जाने लगा जिनके सबुत काफ़ी साल बाद लोगों को मिले। बच्चों के गले खंजर से काटे गए, हज़ारों की तादाद में इसमत लुटी गई।

12 जुलाई 1995 की सुबह लोगों ने स्रेब्रेनित्सा नाम के इस ‘सेफ़ ज़ोन’ से जान बचा कर भागने और बोस्निया के किसी महफ़ुज़ जगह जाने की बहुत कोशिश की। सर्बों ने 14 से 70 साल के किसी भी मर्द को वहां से बाहर नही जाने दिया और औरतों को अलग करते रहे, उन तमाम मर्दों को एक अलग जगह ले जा कर रखा जाता जिसे सर्बों ने ‘व्हाईट हाऊस’ का नाम दे ऱखा था, बाद में पता चला के वहां ले जा कर उन तमाम निहत्थों क़त्ल कर दिया गया, सर्बों ने लोगों के नाक और कान वग़ैरा उनकी ज़िन्दगी मे ही काटे और उनको क़त्ल करने के बाद बुलडोज़र की मदद से बड़ी बड़ी क़बरों मे एक साथ दफ़न कर दिया, अंगिनत बच्चो को बुलडोज़र की मदद ज़िन्दा ही दफ़न कर दिया गया।

पंद्रह हज़ार से अधिक बोस्नियाई मर्दों ने ये फ़ैसला किया के सर्बों के हांथ आने से अच्छा है फ़रार हो कर पहाड़ों के पार तुज़ला नाम के बोस्नियाई इलाक़े पहुंच जाएं, रात के अंधेरे में वो लोग निकले और सुबह जैसे ही पहाड़ी नुमा सड़क पर एक इकट्ठा पहुंचे सर्बों ने मशीनगन और तोपों से उनपर हमला कर दिया, पंद्रह हज़ार बोस्नियाई मर्दों में से सिर्फ़ पांच हज़ार लोग ही तुज़ला पहुंचने में कामयाब हुए। युं तो मरने वाले की तादाद 18000 से अधिक है जिसमे 8000 तो स्रेब्रेनित्सा के क़रीब ही क़त्ल कर दिए गए। स्रेब्रेनित्सा से तुज़ला की दुरी सिर्फ़ 55 किलोमिटर है, पर ये रास्ता पहाड़ों से हो कर जाता है, इसमें कई सड़कें थीं पर सब पर सर्बों का पहरा था। बोस्नियाई मुस्लिमों का शिकार जानवरों की तरह किया गया के कोई भी बच कर नही जाने पाए, जिस जगह पर इंसानो का शिकार खेला गया उसे “कैमेनिका” की पहाड़ीयों के नाम से याद किया जाता है। यहां से बच कर उदरच की पहाड़ीयों पर पहुंचे लोगों का एक बार फिर शिकार खेला गया क्योंके सर्ब सिपाही वहां पहले ही से मौजुद थे। यहां से बचे लोगों को सैनगोवो के मुक़ाम पर क़त्ल किया गया, पंद्रह हज़ार बोस्नियाई मर्दों के जत्थे में से सिर्फ़ चार हज़ार कुछ सौ लोग ही 16 जुलाई 1995 को तुज़ला पहुंचने में कामयाब हुए। तक़रीबन दो हज़ार लोग जंगलो मे छुप गए जिनका शिकार 22 जुलाई 1995 तक सर्ब सिपाहीयों ने किया।

28 अगस्त 1995 के बाद नाटो की फ़ौज ने बोस्नियाई इलाक़ो पर बम्बारी शुर की, जो तक़रीबन एक माह तक जारी रही, ये ज़्यादातर उन इलाक़ो तक महदुद थी जहां सर्बों और मुसलमानो के दरमियान जंग चल रही थी जिसका बज़ाहिर मक़सद जंग को रोकना था, आख़िर नवम्बर 1995 में जंग का ख़ात्मा हुआ और 16 नवम्बर 1995 को संयुक्त राष्ट्र युद्ध अपराध पंचाट ने बोस्निया के सर्ब नेता रावोदान करादज़िच और उनके सैनिक कमांडर रातको म्लादिच को स्रेबेनित्सा के नरसंहार के लिए दोषी ठहराया है. जनरल म्लादिच के उप कमांडर रादिस्लाव क्रस्तिच पहले व्यक्ति थे जिन्हे बोस्निया नरसंहार के लिए दोषी ठहराया गया. म्लादिच ने ही स्रेब्रेनित्सा में हुए नरसंहार की योजना बनाई थी. वैसे दोषी ठहरा कर ही क्या होगा ?

सालों तक दुनिया वालों को ये सही तौर पर पता ही नही चला के आख़िर मे क्या क़्यामत टुटी ??

1991 में स्रेब्रेनित्सा में जहां बोस्नियाई मुस्लिम की आबादी 75.19% थी 2013 में 54.05% हो गई, वाहीं 1991 में और्थोडाक्स सर्ब 22.67% थे जो 2013 में 44.95% और कैथोलिक क्रोएशियाई की आबादी में कोई ख़ास फ़र्क़ नही दिखा ,1991 में वो 0.10% थे तो 2013 में 0.119% हुए..

साफ़ लफ़ज़ो में कुछ इस तरह कहा जा सकता है ⤵

हज़ारों की तादाद में बोस्नियाई मुस्लिम सर्ब-आर्मी के ज़ुल्म से बचने के लिये “UNO” के ज़रिये बनाये गये “सेफ़-ज़ोन” में पनाह लेती है, और इन लोगो के क़त्लेआम की सुपारी 400 संयुक्त राष्ट्र शांति-सैनिकों को दी जाती है, और उन्ही के इशारे पर 10 जुलाई 1995 को सर्ब-आर्मी उसी “अऩ सेफ़ज़ोन” पर हमला कर देती है और “संयुक्त राष्ट्र शांति-सैनिकों” के इलावा तमाम मुसलमानों क बंधक बना लेती है, उसके ठीक उसके बाद शुरु होता है क़त्लेआम का नंगा-नाच और सिर्फ़ 3 दिनों में 8373 मुसलमानों का क़त्लेआम किया जाता है जो के अधिकारिक आंकड़ा है, जबके तादाद अधिक है और 23,000 औरतों को उस “सेफ़-ज़ोन” से उठा कर ले जाया जाता है…जिनके साथ सर्ब-सेना बलात्कार करती है और अपने साथ रखती है ताकि ये प्रेगिनेंट हो जायें….और मजबूर हो कर उनके बच्चे को पैदा करेंI एक रिपोर्ट के अनुसार वहाँ तैनात “संयुक्त राष्ट्र शांति-सैनिकों” ने भी इन कामों में सर्ब-सेना की भरपूर मदद की और खु़द भी बलात्कार के कामों में लिप्त रहेI

#11July1995

Md Umar Ashraf

 

वेल्लोर विद्रोह :- जब टीपु सुल्तान के बेटे फ़तेह हैदर बने सुल्तान !!

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भारतीय इतिहास में सन 1857 की क्रांति को हिन्दुस्तान की पहली जंग ए आज़ादी के रूप में याद किया जाता है हालांकि इससे पहले भी कई छोटे युद्ध हो चुके थे। इस क्रम में सबसे पहली पहल सन 1806 में आज ही के दिन 10 जुलाई को की गई थी। वेल्लोर म्यूटिनी के नाम से मशहूर इस जंग में ईस्ट इंडिया कंपनी के हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने अंग्रेज़ो के खिलाफ जंग छेड़ दी थी।

हालांकि यह जंग 1857 की ही तरह धार्मिक कारणों के आधार पर शुरू हुई थी। इस जंग को हिन्दुस्तान की तारीख़ में आज़ादी की पहली कोशिश के तौर पर याद किया जाता है।

नवंबर 1805 में ब्रिटिश कंपनी ने फ़ौज के ड्रेस कोड में कुछ बदलाव कर दिया था जिसमें हिन्दू सपाही अपने पेशानी पर तिलक नहीं लगा सकते थे और मुसलमान सिपाही के लिए अपनी दाढ़ी कटाना ज़रुरी कर दिया गया था, जो खुले तौर पर धर्मिक मामले में दख़ल माना गया।

मई 1806 में इन नियमों के खिलाफ़ खड़े होकर वेल्लोर में मद्रास आर्मी विंग के एक हिन्दू तथा एक मुस्लिम सिपाही ने आंदोलन छेड़ दी जिसे बाद में औऱ सिपाहीयों का साथ मिला, पर इसे बग़ावत समझा गया और इन दोनो हिन्दु और मुसलमान सिपाहीयों को 90-90 कोड़े मार कर नौकरी से बेदख़ल कर दिया गया औऱ बाक़ी 19 सिपाहीयों को 50-50 कोड़े मारे गए औऱ उऩ्हे ब्रिटिश कंपनी से माफ़ी मांगने पर मजबुर किया गया।

इस वाक़ीये ने सिपाहीयों मे गुस्सा भर दिया, बग़ावत की तैयारी शुरु हो गई पर उन्हे एक लीडर की ज़रुरत थी, तब उन्होने टीपु सुल्तान के वारिसों को अपना नेता माना जो वेल्लोर क़िले में ब्रिटिश कम्पनी द्वारा नज़रबन्द कर दिए गए थे।

इस विद्रोह में टीपू सुल्तान के वारिसों ने सिपाहियों का साथ देने का वादा किया औऱ सिपाहीयों ने भी टीपू सुल्तान के वारिसों के तईं अपनी वफ़ादारी का वचन दिया, 9 जुलाई 1806 को टीपु सुलतान की बेटी शादी थी, टीपु सुल्तान के वारिसों को अपना नेता मानते हुए बाग़ी सिपाही शादी में हिस्सा लेने के बहाना से वेल्लोर क़िले में घुसे और अगले ही दिन वेल्लोर क़िले पर मैसूर रियासत के झण्डे को फहरा दिया, टीपु सुल्तान के दुसरे बेटे फ़तेह हैदर को सुल्तान घोषित किया गया, इस तरह विद्रोहियों ने टीपू सुल्तान के बेटों की ताक़त को फिर से मज़बूत करने की कोशिश भी की।

विद्रोह शुरू होने के कुछ ही देर में विद्रोही सिपाहियों ने शहर में मौजूद सभी ब्रिटिश सिपाहियों और अफ़सरों में मार-काट मचा दी। विद्रोहियों ने वेल्लोर क़िले पर कब्ज़ा करके 200 ब्रिटिश सिपाहियों को मारा और ज़ख़्मी कर दिया, इसी बीच एक ब्रिटिश सिपाहियों भाग कर नज़दीक के ब्रिटिश फ़ौज की टुकड़ी के पास आरकोट जा पहुंचा। जहां से फ़ौरन ही सर रोलो गिलेस्पी की अगुवाई में एक बड़ी फ़ौज की टुकड़ी रवाना की गई और उसने जल्द ही इस विद्रोह पर काबू भी पा लिया, यह विद्रोह एक ही दिन चला, ये बगावत 1857 की क्रांति से 50 साल पहले अंजाम दी गई, इसके विफ़ल होने के कई कारण हैं।

विद्रोह समाप्त होने के बाद लगभग सभी विद्रोही सिपाहियों को या तो फांसी की सज़ा दी गई या फिर गोली मार कर शहीद कर दिया। कुछ ही घंटे चली इस जंग में विद्रोह सिर्फ वेल्लोर शहर तक ही महदुद रहा पर इस विद्रोह ने अंग्रेज़ी हुकुमत को अपनी नीतियों पर एक बार फिर सोचने के लिए मजबूर कर दिया।

Md Umar Ashraf

 

अंग्रेज़ो के हाथ “अज़ीज़न” गोली खा कर शहीद हो गईं पर अपने साथियों का नाम नहीं बताया …!!

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1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बलिदानी महिलाओं में कानपुर की नाचने गाने वाली महिला अज़ीज़न बेगम का नाम विशेष उल्लेखनीय है। अज़ीज़न बेगम का जन्म 1832 में लखनऊ में हुआ था।

आगे चलकर दुर्भाग्य की मारी अज़ीज़न कानपुर आकर मशहूर तवायफ़ उमराव जान अदा के साथ नाचने गाने का काम करने लगी, यहीं उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से हुआ।

अज़ीज़न एक नाचने वाली औरत थी, लेकिन उससे वो कहीं बढ़ कर थी, भोजपुरी भाषा एक कवी है भिकारी ठाकुर वो भी नर्तक थे और वो अपने नाटक से समाज में फैली कुरीति पर ज़बरदस्त प्रहार करते थे ,अज़ीज़न ने भी अपने जीवन में यही किया था अपने नाटक से समाज के कुरीति पर प्रहार !

1857 की क्रांति कानपूर में फ़ैल गया था, अज़ीज़न बेग़म को ये अहसास था के सीधे अंग्रेजों को हराना मुश्किल है लेकिन उन्होंने हिम्मत नही हारी, कानपूर के क्रांतिकारी का नेतृत्व नाना साहब के हाथ में था , 4 जून 1857 में क्रांतिकारी की गुप्त बैठक हुई उसमे शमशुद्दीन खां ,नाना साहेब , अज़िमुल्लाह खान ,तात्या टोपे के साथ अज़ीज़न भी शामिल थी !

कानपूर की पहली लड़ाई में नाना साहेब जीत गये थे , उन्हें विठुर का शाशक बना दिया गया था, नाना साहब के आह्वान पर अजीजन ने अंग्रेज़ों से टक्कर लेने के लिए स्त्रियों का सशस्त्र दल गठित किया एवं स्वयं उसकी कमान सम्भाली, जो लोगों को लडाई के लिए उभारता था ,उनका समूह घायल सैनिको का इलाज करता , सैनिक तक खाने पीने की चीज़े पहुंचता।

प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार सर जार्ज ट्रेवेलियन ने उसका वर्णन एक योद्धा के रूप में इस प्रकार किया है :- “घोड़े पर सवार सैनिक वेशभूषा में अनेक तमगे लगाए और हाथ में पिस्तौल लिए अजीजन बिजली की तरह अंग्रेज़ सैनिकों को रौंदती चली जाती थी। उसके साथ महिलाओं की घुड़सवार टुकड़ी भी घूमा करती थी। सैनिकों को हथियार देना, प्यासे सैनिकों को पानी पिलाना एवं घायलों की देखभाल उनके महत्त्वपूर्ण कार्य थे।”

पं. सुन्दरलाल ने अपनी पुस्तक ‘ भारत में अग्रेज़ी राज’ में लिखा है कि कानपुर पर विद्रोहियों का क़ब्ज़ा होने के बाद बंदी अंग्रेज़ स्त्रियों व बच्चों की हत्या के लिए विद्रोहियों को उकसाने वाली अजीजन ही थी।

सावरकर ने लिखा है जो सिपाही मैदान जंग से भाग कर वापस आ जाते वो सिर्फ अज़ीज़न के चेहरे के रंग को देख कर वापस मैदान जंग चले जाते !

सम्भवत: ऐसा उसने अंग्रेज़ों के अमानवीय अत्याचारों के कारण क्रोध और घृणा के आवेश में किया होगा।

नाना साहेब की पहली जीत ज़्यादा दिन तक टिक नही सकी ,नाना साहेब और तात्या टोपे को कानपूर छोड़ना पड़ा औऱ अज़ीज़न कानपूर की पराजय के बाद पकड़ी गयी, औऱ उऩ्हे गिरफ्तार कर अंग्रेज़ कमाण्डर सर हेनरी हेवलाक के समक्ष लाया गया। जनरल हेवलाक ने अज़ीज़न को अपने किये गये काम के लिए माफ़ी मांगने औऱ 1857 की क्रांति के नायक क्रांतिदूत अज़ीमउल्लाह ख़ाँ का पता बताने के शर्त पर उसने माफ़ी देने वायदा किया गया।

अज़ीज़न ने ऐसा करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। अंतत: ‘हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद’ का नारा लगाते हुए वह अंग्रेज़ों की गोली खाकर शहीद हो गई।

Ar Ibrahimi की धारदार क़लम से

नोट :- अगर क्रांतिदूत अज़ीमउल्लाह ख़ाँ नही होते तो 1857 की क्रांति ही नही होती